होलिका दहन या....!

होलिका दहन हुआ या
इसीलिए शुभ- होली का दिन था
अहंकार की अग्नि में, स्वर्णिम 
होलिका, अग्नि को समर्पित हो ली थी।
कपट छल के द्वेष में ,वो बुआ, स्वयं 
प्रज्वलित हो ली थी।
दहन हुआ पाप का, पुण्य
की पुनः विजय हुई थी।
"मैं" की अग्नि की तपन में स्वयं
होलिका दहन हुई थी।

प्रहलाद तो प्रतीक रहा, सत्य का,
निःस्वार्थ भाव से विभोर एक भक्त का।
सत्य की विजय ही,  नियति है, ये बता गया
भक्तिमय रंग  से इस जग को वो रंगा गया। 
होलिका दहन हुआ, सत्य विजित स्वयं हुआ।
इस संसार को समर्पित, एक और पर्व हुआ।

पुनः होली का पर्व है आया 
इस जग में उत्सव है छाया।
आधुनिकता के दीवानों से, इक निवेदन है 
होली के मस्तानों से,
रंगीनी ना फीकी पड़े गुलाल की
ना मिठास में कमी आए, मालपुए और भांग के गिलास की
हर रिश्ता, चाहे जो भी हो, मित्रो और परिवारो में
बने सुघट्ट और निकटता आए, अपने इन्ही त्योहारों में।
गुलाल का रंग न बदले, किसी भी मलाल में
बस मीठी यादें दे जाएं दूजे को, मदमस्त खुशहाल में।

होलिका दहन, प्रतीक है ,दहन अपने दंभ का।
ये पर्व तो है फाग और मिरदंग का।
आधुनिकता की होली में, नवल छंद की बोली में। 
बेढंग है हुड़दंग अब, बेरंग है सारे रंग अब।
फिर से एक प्रहलाद चाहिए 
इस पर्व का पुनः सम्मान चाहिए।
होली के रंग में रंग जाएं,खुद ही,
पुनः अब ऐसे राधा - श्याम चाहिए।
रंगीन सुबह, मीठी शाम,
हर होठों पर मुस्कान चाहिए।
बस त्योहारों का ऐसा ही सम्मान चाहिए।
ऐसा ही सम्मान चाहिए।

शुभ होली।
रुचि अमित झा














Comments

Popular posts from this blog

Who is the Magician!

YOGA

खुद को ढूंढता .......