खुद को ढूंढता .......
अपने ही नक्श में
खुद को ढूंढता मेरा अक्स,
जानी पहचानी सी भीड़ में
जाना - अनजाना सा शख्स।
मेरा अपना- सा अल्हड़पन
न जाने कहां गुम है,
ये पराई - सी समझदारी का
न जाने कब से हुजूम है।
नादान अटखेलियां कहां नदारत हो गईं
ना जाने कैसे " एहतियात" की आदत हो गई।
आवाज नादानियों की आज गुम है , और
जिम्मेदारियों की गूंज में मेरी अपनी आवाज
कहीं गुमसुम है।
मैं, अब , सिर्फ मैं नही हूं।
बहुत से शीर्षकों की दुशाला है तन पर।
लेकिन मुझे बहला सके वो सिर्फ, एक शीशा है
जिसपर उकेरे हैं यादें अनगिनत,
जो लेकर जाए मेरे प्रौढ़ मन को बचपन पर।
जहां हो केवल बाल हठ करता बाल मन।
उत्सुक चित्त और चंचल मन।
खुद को मिल जाऊं खुद ही
ऐसी नजरें, नजर आएं खुद ही।
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